श्री भगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदु:।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणा:।।२।।
भगवद्गीता अध्याय १८
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भगवान ने कहा - भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को विद्वान लोग संन्यास कहते हैं और समस्त कर्मों के फल-त्याग को बुद्धिमान लोग त्याग कहते हैं।
तात्पर्य:
कर्मफल की आकांक्षा से किये गये कर्म का त्याग करना चाहिए। यही भगवद्गीता का उपदेश है। लेकिन जिन कर्मों से उच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो, उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। वैदिक साहित्य मे किसी विशेष उद्येश्य से यज्ञ सम्पन्न करने की अनेक विधीयों का उल्लेख हैं। कुछ यज्ञ ऐसे है, जो अच्छी सन्तान प्राप्त करने के लिये या स्वर्ग की प्राप्ती के लिये किये जाते है। लेकिन जो कर्म इच्छाओं के वशीभूत हो उस यज्ञ का परित्याग करना चाहिए। परंतु आध्यात्मिक ज्ञान मे उन्नती या ह्रदय की शुद्धि के लिये किये जाने वाले यज्ञों का परित्याग करना उचित नहीं है। यज्ञ का अर्थ आहुति है। आहुति के अलग अलग प्रकार है और जीवन ही आहुति है, सिर्फ बुद्धि जागृत होना चाहिए।
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