धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौच इंन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यम् अक्रोधो, दसक धर्म लक्षणम्।।
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अर्थात:
धैर्य,क्षमा,संयम,चोरी ना करना, स्वच्छता, इंद्रियो को वश मे रखना, सुबुद्धी, सुविद्या, सत्यवचन, क्रोध ना करना यह धर्म के दस लक्षण है। लेकिन इन दस लक्षणों से धर्म पूर्णरूप से परिभाषित नहीं होता।
धर्म याने सिर्फ धर्म है कोई विवादित या controversial शब्द नहीं है जो विवाद निर्माण करें। धर्म का किसी भी भाषा में अर्थ सिर्फ धर्म ही होगा। इसका अर्थ ना तो religion ना ही मजहब है।
धर्म को जानना है तो हम इन उदाहरणों से समझ सकते हैं जैसे मातृ धर्म, पितृ धर्म, पूत्र धर्म, पत्नी धर्म, पति धर्म, परिवार धर्म और सबसे महत्वपूर्ण समाज धर्म और राष्ट्र धर्म है। इन सभी धर्मो का पालन जो मनुष्य वैदिक सनातन नियमों द्वारा संतुलन रखकर करता है वह मानव धर्म है ,वही मानव है अन्यथा जंगली पशु मात्र है। अर्थात मानवता नियमों के बंधन में रहकर जीवन जीना ही धर्म है जो अपौरुषेय वेद, पुराण और उपनिषदों मे दिए गये है।
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वेदोऽअखिलो धर्म मूलम्, स्मृतिशीले च तदविदाम्।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।
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अर्थात जिस कर्म के करने में भय, शंका, लज्जा, स्वार्थ ना होकर आत्मा को प्रसन्नता अनुभव हो यही धर्म का मूल है।वेद ही धर्म का मूल है, जो हमे सही मार्ग पर चलने के नियम बताता है।
धर्म की परिभाषा तीन चार पंक्तियो मे देकर पूर्ण नहीं होती। धर्म की परिभाषा अगर जानना है तो धर्मग्रंथ भगवद्गीता को पढकर आत्मसात करे। बस यही संपूर्ण धर्म की परिभाषा है।
महाभारत का लोकप्रिय श्लोक
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धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षित:।
तस्माद् धर्म न त्यजामि, मा नो धर्मो हतोऽवधित।।
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अर्थात यदि धर्म का नाश किया जाए तो वह नष्ट किया हुआ धर्म कर्ता को ही नष्ट कर देता है और अगर उसकी रक्षा की जाए तो वही कर्ता की रक्षा करता है। इसलिए मैं धर्म का त्याग नहीं करता क्योकि वह नष्ट हुआ तो धर्म मेरा ही नाश कर देगा।
इसका उदाहरण दुर्योधन और संपूर्ण कुरूवंश है। महाभारत में पूत्र मोह मे किस तरह संपूर्ण वंश और राज्य का विनाश होता है इसलिए जब जब धर्म का नाश हुआ तब तब धर्म को बचाने के लिये कृष्ण निती का अवलंब करना ही चाहिए,जिससे क्षत्रिय धर्म, समाज धर्म और राष्ट्र धर्म का पालन होगा।
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धर्म की विजय हो, अधर्म का नाश हो।
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वेद आनंदम् परिवार
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