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ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।

अर्थात:

ऋषि मुनी कहते हैं तुम त्यागपुर्वक भोगो को भोगो । आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। जो तुमने भोग लिया उसे दुसरो के लिये छोड़ दो । सभी एक दुसरे के आश्रय से जीवीत है। जीवन रूपी श्रृंखला की मानव एक कडी है, बीच की एक कडी टूटने से श्रृंखला का स्वरूप ही नहीं रहता । सभी का अपना मूल्य है। अंत: फिर तेन त्यक्तेन का अर्थ यह हुआ कि तुम एक दुसरे के लिये जियो,न कि स्वयं के लिये।

दुसरो को सुखी बनाने के लिये ही वेदो की रचना हुई है।

सिर्फ उच्च शिक्षा लेकर धन कमाना ही सुखी होना नहीं हो सकता ,मानसिक शांति से ही इंसान हरेक परिस्थिती में सुखी रहता है , और वेद हमें मानसिक शांति का महत्व और अनुभव कराते है।


वेदाध्यायी सदा शिवा: II


सर्व वैदिक संस्थाओ का वेद आनंदम् पर हार्दिक स्वागत है।

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